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आँगन और पार-द्वार का व्यंग्य

साहित्य

आँगन और पार-द्वार का व्यंग्य

साहित्य/पुस्तक समीक्षा/Tamil Nadu/Chennai :

धर्मपाल महेन्द्र जैन का व्यंंग्य संग्रह 'डॉलर का नोट' चौंकाता- सा शीर्षक है। डॉलर डॉलर है और नोट नोट। पर, यह कोई एक्सचेंज का मुद्रा बाजार नहीं  बल्कि जन्मभूमि रानापुर (झाबुआ) के लोक जीवन से न्यूयार्क- टोरंटो की रंगीन दुनिया के बीच प्रवासी अनुभवों की व्यंग्य-व्यथा को पारदर्शी बनाता है। 'मैं' के आत्मकथात्मक तेवर में यह प्रवासी आत्मा कितनी प्रफुल्ल किन्तु विनोदी व्यंग्य मुद्रा में अपनी लिपि उत्कीर्ण कर जाती है- " मैं मन से भारतीय, काम से अमेरिकन, देह से कैनेडियन और दिमाग से खुराफाती हूँ। संस्कृतियों का मिश्रण हूँ, जायकेदार भारतवंशी। आलू को कहीं भी डाल दो अपनी छाप छोड़ जाता है।" आलू के बहाने वसुधैव कुटुम्बकम् की विश्वदृष्टि  सांस्कृतिक बन जाती है, सभ्यता के नाते समावेशी बन जाती है, दिमाग के नाते नवोन्मेषी की जाती है। पर, यह तो निबंधात्मक पक्ष है, जिसमें यह व्यंंग्य- वक्रता का खुराफाती वायरस इमोजी की तरह झमाझम कूद मचाता है।

और जब, कैनवास ही प्रवासी की वैश्विकता है, तो व्यंग्य का परिदृश्य भी वैश्विक ही होगा। चाहे उसे रंगभेद से लेकर झारखंड के आदिवासी प्रखंड में राजनीति पर मार करनी पड़े । यह छलाँग कभी विराट परिदृश्य बन जाती है, कभी बौद्धिक परिहास, कहीं वैचारिकता का प्रबोधक तर्क, मगर बीच बीच में व्यंग्य-सूत्र में गहरी मार के चुभते अक्स अकाट्य व्यंजना जाते हैं। व्यंंग्य का यह क्षेत्रफल अटलांटिक लहरों से हिन्द महासागर तक आता है और द्वीपीय जनजीवन से साक्षात्कार कराता हुआ ऐसा ध्वनित होता है, जैसे डमरू की रस्सी से उसके दोनों शंकुक (ढ़क्का) बज रहे हों। और, अपनी भीतरी परतों के बीच यथार्थ और अस्मिता के साथ व्यंंग्य से दंशित भी कर रहे हों। 'डॉलर का नोट'  भारत में विवाह प्रसंगों में एनआरआई के ऊँचे कद का प्रतिमान तो बन जाता है पर भारत में गुलामी के संस्कार का धूमिल पक्ष भी। लेकिन, यहीं' व्यंग्यकार डॉलर की गुलामी की धुलाई करते हुए पॉलिशवाले  बच्चे को ला खड़ा करता है - "मैं तो बूटपॉलिश करके अपना घर चलाता हूँ। मेहनत के बीस रुपये मिलेंगे तो काम आएँगे।" डॉलर का एनआरआई अहंकार और विदेशी को भी ऊँचा भाव देने की हीन- ग्रंथि पर यह मार असल पॉलिश कर जाती है।  
            लिखना तो कुछ भूमिका-सा है, मगर समीक्षा दौड़ी चली आती है; दोनों में  मसालों और रसायनों के कॉम्बीनेशन का फर्क है। मगर उबले हुए चावलों में से दो चार को अंगुलियों से दबाकर शेष को छोड़ते बनता नहीं इसलिए इन प्रवासी परिवेश के व्यंग्यों की बुनावट और लोकजीवन के अवेक्षण की सूक्ष्मता तक चली ही जाती है। और फिर धर्मपाल जैन को जाने-माने व्यंग्यकार लिखने की आम शैली की तरह रेखांकित करने के बजाय लेखक की वैयक्तिक विशिष्टता (idiosyncracy) अपनी छाप अंकित करती है। धर्मपाल जी के 'साक्षात्कार 'और 'डिस्क्लेमेयर' जैसे व्यंग्यों में उनकी प्रयोगधर्मिता फ्रेमवर्क को तोड़ती नजर आती है। अधिकतर व्यंग्य निबंध और कहानी के वातावरण की तरह परिवेश को बुनते हैं, उसकी आन्तरिक तहों तक जाते हैं और इसी बीच व्यंग्यों की चुभन अपना रंग चोखा कर जाती है। फिर यह चुभन भारत से अमेरिका- कैनेडा के बीच कूदफांद मचाती हुई व्यंग्य के प्रवासी क्षेत्रफल के बीच की फाँक से परहेज ही करती है। पर, इस बुनावट में लेखक का कवि, उसका आत्मकथात्मक अंश, उसकी कथात्मक संरचना, निबंधात्मक वैचारिकता की झलक और व्यंग्य की फांस एकमेव होते जाते हैं । 'मैं' के आत्मव्यंग्य से सरपट होकर वह सार्वजनीन बन जाता है।
        यह व्यंग्य धर्मिता लोक-अवेक्षण और विसंगत के प्रतिकार का फलित है। लेकिन, तमाम विमर्शों और विचारधाराओं को नेपथ्य में रखते हुए अपने वैचारिक तर्क और आघात को ही व्यंग्य का सूत्रवाक्य बनाती जाती है। परिवेश और व्यंंग्य की यह आंतरिक जुगलबंदी एक समर्थ विन्यास और बौद्धिक परिहास से उन दुरभिसंधियों और गठबंधनों के अवांछित समासों को विग्रह और विच्छेद तक ले जाती है। आलू के बहाने व्यंग्य की लंबी रेंज राजनीति से साहित्य तक, अमेरिकी तोंद से चारा कांड तक इतने पलटू मुहावरों में मुखर हो जाती है- " कितना बड़ा राजनीतिज्ञ है आलू | नमक- मिर्ची, प्याज-लहसुन, धनिया-जीरा (छोटे- छोटे राजनैतिक दल) किसी से भी गठबंधन करने से कोई परहेज नहीं । साहित्य का आलू बन गया तो गठजोड़ करके व्यंग्यकार, कवि, हाईकुकार, कथाकार, समालोचक बन जाऊँगा।" पर इसी आंतरिकता में व्यंग्यकार की वह निर्विष  और भावसाध्य सुकोमल आस्था भी झलक मार जाती है ,जो मनोवृत्तियों में बदलाव का अक्स है-" नफरत आदमी का दिमाग इतना लील जाती है कि आदमी प्यार को भी नफरत की निगाह से देखता है। काश कोई हास्य-व्यंग्य ऐसे टेढ़े आतंकी दिमाग को सीधा कर पाता।" यह 'लेखकीय दृष्टि व्यंग्य- वक्रता के लक्ष्य और उसके असरदार होने में ही अपनी सिद्धि देखती है। व्यंंग्य की असरदार मार और रंजकता का गुण इन व्यंग्यों की ताकत है।
            यों तो परिवेश की जमीनी भिन्नता के कारण व्यंंग्य के कोण भी अलहदा हैं पर जब वे कंट्रास्ट में उभरते हैं तो प्रवासी परिवेश की व्यंग्य - मुद्राएँ नया रच जाती हैं। मसलन, गड्ढों में सड़क की भारतीय जमीन जब कनाडा के बर्फ के दिनों में सड़कों के पाथहोल के बदसूरत गड्‌ढों को बर्फ से छुपा देती है, तो दोनों ही परिवेश कितने एक से होकर भी अलग हो जाते हैं। मगर, व्यंग्यकार की छलांग ऐसे मौसम में कहाँ जा लगती है-" पौष की बर्फीली दोपहर में गर्म पकौड़े कैनेडियन कवि कालिदास को भीतर बुला रहे हैं।" फिर तो भारतीय सड़कों पर तंत्राचार करते 'नीबू मिर्चियों की कैनेडियन सड़कों पर पड़े मिलने की, कल्पना जुर्माना- तंत्र में सारी रसूखदारी को भुला देती है। यह जो महाद्वीपीय सभ्यताओं का जमीनी कंट्रास्ट है, वह भी कितनी मारक समानताएँ खोज लाता है- "हिन्दी साहित्य और स्कॉटलैण्ड यार्ड में एक अनूठी समानता है। मुर्दे कब्र में गाड़ दिये जाएँ तो उन्हें खोदकर निकालना इनकी परम्परा है।"
       सभ्यताओं के असल और अंदरूनी रंग जब व्यंग्य मुद्रा में कविताई करुणा तक जा लगते हैं ,तो रंगभेद के कारण 'जार्ज फ्लायड जैसे लोगों की आत्माएँ" चीत्कार करती हैं और यह चीत्कार विद्रोह या आक्रोश में कह जाती है-"यातना देने वालों की
स्मृतियाँ इक्कीसवीं सदी में चौराहों पर टिकी रहीं तो गुफाकाल से यहाँ तक की हजारों साल की मनुष्यता निरर्थक हो जाएगी।" लगता है कि पश्चिम की तकनीकी और सोशल मीडिया में शोर मचाती दुनिया में जितना डिजिटल शृंगार हुआ है, उसमें तमाम विद्रूपताओं- क्रूरताओं के क्षोभ के बावजूद  व्यंग्यकार के पास यह तो कहने को बचा है -"मुझ में कहीं आदमी शेष है, वह इमोजी नहीं बना है।"
           धर्मपाल इन व्यंग्यों में साहसिक मुद्राओं के साथ इस तरह उतरते हैं जैसे भारत और अमेरिकी महाद्वीप का जीवन परिदृश्यमय है और उनकी आंतरिक परतों के बीच के समाज - मनोविज्ञान और राजनीति, आदिवासी और डिजिटल, तकनीक और पौराणिक मिथक सहज ही आत्मसात होते जाते हैं बल्कि मिसाइल की तरह सरपट पार हो जाते हैं। इस परिवेश में उनके व्यंग्य की भावलिपि जब शब्दलिपि में आकार लेती है, तो व्यंग्यकार की बॉडी- लैंग्वेज में छुपी व्यंग्य-वक्रता साक्षात् हो जाती है। बावजूद नरेटिव निबंधात्मकता के यह विशिष्टता उनके व्यंग्यों की पहचान बन जाती है। साहब के दस्तखत की लिपि से देश और अफसर की कार्यगति की पहचान कितनी सूक्ष्मतर है-"हम दस्तखत की गति से देश की नब्ज़ भांपते हैं। दस्तखत का पहला अक्षर अंग्रेजी मे, तो दूसरा हिन्दी, तेलुगु या हिब्रू होता है। बाकी तो लाइन स्कैच रहती है सर  इसलिए दस्तरवत की कोई लिपि नहीं होती।"
      मुझे डर लग रहा है कि कहीं भूमिका समीक्षा तो नहीं बनती जा रही है। पर, ये चुटीले अक्स मजबूर कर रहे हैं। प्रवासी साहित्यकारों में जंबूद्वीप में सम्मान पाने और सोशल मीडिया में 'शो' बनने की ललक, साहित्यकारों  में आत्ममुग्धता का "एक्यूट ग्रेटेटाइटिस सिन्ड्रोम रोग, अपुरस्कृत साहित्यकारों की व्यथा, मंचीय काव्यपाठ में राग- कॉकटेल, देशी मजदूर- प्रवासी बनाम एनआरआई प्रवासी का  सम्मान भेद, पाठकमुखी लेखन, कोरोना काल का अतौलनीय कई टन वजनी साहित्य, सफल साहित्यकार के लिए अपना संपादक होने की जरूरत, नाम के बजाय कोड नंबर में बदलती युवक-युवतियों के बीच डेटिंग, अमेरिकन तोंद में में खुशी के बैरोमीटर का पारा, नगर निगम के नल से टपकते बूँद- बूँद पानी की तरह साहित्यकारों की रचना- प्रक्रिया जैसे अनेक विषय हिन्दी व्यंग्य को बड़े फलक से 'जोड़ते हैं। पर जब कैनेडा में कैनबस और मेरेवाना की मस्ती के नशेड़ी चित्र आ धमकते हैं तो व्यंंग्य का किरदार देशी-विदेशी जमीन को एक साथ मिला देते हैं- "खई के कैनबस कनाडीवाला, खुल जाए बन्द अकल का ताला"
          अपने सहज निबंधन में लेखक का वैचारिक प्रबोध जितना सतर्क है, उसकी मौजभरी रंजकता भाषिक चयन में उतनी ही खिलंदड़ी है। फिर वैदिकी से कूदकर आधुनिकी में सरपट होती हुई उक्तियों में जरा सा फेरबदल करके रंजक-व्यंग्य बन जाती हैं - कवि करोति काव्यानि रसं जानाति संपादक। "फ्लर्ट करते शब्दों से नये अर्थ चिपकाने की कला उसकी महारत है। नये मुहावरे गढ़ती जिन्दगी की भाषा असल कह जाती है - टेक्नोलॉजी आदमी के ऊपर का चौकीदार, निर्दलीयों की तरह विचारों की घुसपैठ, वेबनारों - वेबनारियों', खोदा पहाड़ निकली भैंस, साहित्य का आलू, मंचीय कव्यपाठ: एक सामूहिक कला जैसे अनेक प्रयोग समाज और राजनीति से लेकर आदमी के भीतर के परतों को खोलकर रख देते हैं। और, सूत्र वाक्यों की व्यंग्यात्मक मार का माइलेज तो दूरदूरतर है-"जो देशी हुजूरिया संस्कृति नहीं अपना पाता, वह विदेश में जाकर चमक जाता है।"
        भारतीय जमीन की देशी जड़ों में पला-बढ़ा प्रवासी  व्यंग्यकार  प्रवासी जीवन में नये अर्थ पाता है और हिन्दी के व्यंग्य को  आंगन के पार- द्वार से समृद्ध करता है, तो निश्चय ही ये रचनाएँ पाठक से अंतरंग होंगी।
 

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बीएल आच्छा

By News Thikhana

विभिन्न शैलियों में साहित्यिक लेखन के माध्यम से अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सक्रिय रहने वाले बीएल आच्छा वर्तमान में चेन्नई में रहते हैं और वे मध्य प्रदेश में उच्च शिक्षा के कार्यक्षेत्र से संबद्ध रहे हैं।

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