स्वर्गीय कवि नंद चतुर्वेदी की जन्मशती पर गणमान्य लोगों ने विचार गोष्ठी में भाग लिया
साहित्य//Rajasthan/Jaipur :
शनिवार 29 जुलाई का दिन व्यस्ततापूर्ण लेकिन दिलचस्प रहा। जयपुर में आयोजित हिंदी के श्रेष्ठ कवि नंद चतुर्वेदी (नंद बाबू) के जन्मशती कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। वहां तो हेतु भारद्वाज और ओम थानवी से लेकर हेमंत शेष, नंद भारद्वाज, कृष्ण कल्पित और राजाराम भादू जैसे दिग्गजों को सुनने का मौका मिला ही, इसी बहाने मुझे भी अपने जीवन और सोच के संदर्भ में नंद बाबू के प्रभावों की पड़ताल करने का बहाना मिल गया। मगर खुद सोचना, विचारना, किसी नतीजे पर पहुंचना अलग बात है और उसे सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करना अलग। सार्वजनिक प्रकटीकरण में हिचक होती है जिसके ठोस कारण मौजूद हैं।
मैंने पत्रकारिता में जरूर अपने जीवन का एक हिस्सा... कह लीजिए बड़ा हिस्सा खपाया है, इसलिए उसके बारे में आधी अधूरी कच्ची पक्की समझ रखने की बात कह सकता हूं, लेकिन साहित्य पर बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता। साहित्य का तो मैं ढंग का विद्यार्थी भी नहीं कह सकता खुद को। साहित्य के बारे में जब भी मैं सोचता हूं तो यही रूपक ध्यान में आता है कि साहित्य से मेरा रिश्ता वैसा ही है जैसा जुहू बीच पर जाने वाले मुंबईकरों या पर्यटकों का समंदर के साथ होता है। लहरों में थोड़ा छप-छप करना, दूर से समंदर में डूबते सूर्य को निहारना, प्रकृति की खूबसूरती का लुत्फ उठाना और जीवन में थोड़ी ताजगी भरकर वापस लौट आना। बस यही हमारे लिए समंदर होता है।
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ... तो पाइयां का सवाल भी तब उठेगा जब हम खोजने की शुरुआत करेंगे, गहरे पानी में पैठना शुरू करेंगे। पर साहित्य के संदर्भ में उसकी कोई सूरत नहीं बनती मेरे लिए।
फिर भी अगर विनम्र भाव, बल्कि कहूं आभार भाव के साथ नंद बाबू को याद करने बैठा हूं, तो वह भी अकारण नहीं है। उनसे मुझे भी इतना कुछ जरूर मिला है जो मेरी अपनी जिंदगी को समझने, उसे मायने देने में काफी मददगार साबित हुआ है।
और, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। जैसे अच्छा संगीत हमारे दिलों तक अनायास पहुंच जाता है, उसके लिए यह कतई जरूरी नहीं होता कि संगीत के शास्त्रीय पहलुओं पर हमारी महारत हासिल हो, उसी तरह अच्छा साहित्य भी न्यूनतम शर्तों के साथ हमारे अंदर पहुंच जाता है। औऱ अच्छे साहित्यकार, नंद बाबू जैसे बड़े कवि भी इसी सहजता से हमारे अंदर प्रवेश कर जाते हैं। यह कतई जरूरी नहीं कि वे साहित्य के जरिए ही हमें प्रभावित, प्रेरित और परिवर्तित करेंगे।
इसका जीता-जागता सबूत मैं खुद हूं। जब मैंने पहली बार नंद बाबू का जिक्र सुना तब तक मैंने उनकी कोई कृति नहीं पढ़ी थी कि अच्छा बुरा कोई ख्याल आता नाम सुनकर। बात 1991-92 की है। मुझे तब मुंबई पहुंचे छह महीने भी नहीं हुए थे। मैं मुंबई से निकलने वाले एक छोटे से सांध्य दैनिक में काम कर रहा था। अनुराग चतुर्वेदी ऑब्जर्वर में थे। तब तक उन्हें पत्रकारिता में डेढ़ दशक से ज्यादा समय हो गया था और वह देश के अच्छे पत्रकारों में शुमार होते थे।
हिंदी सांध्य दैनिक हमारा महानगर शुरू करने की पहल हुई और अनुराग जी ने उसका संपादक होना स्वीकार कर लिया। अपनी टीम में उन्होंने मुझे भी शामिल किया। यह बात उन्हीं दिनों की है जब हम सब अनुराग जी की नई टीम में शामिल हो चुके थे और अखबार निकालने की तैयारियां चल रही थीं।
एक दिन अनुराग जी ने मुझे एक पत्र दिखाया और बताया मेरे पिता ने ये पत्र भेजा है, अपनी शुभकामनाएं दीं हैं। पत्र दिखाते हुए अनुराग जी के चेहरे पर जो भाव आए कुछ सेकंड के लिए, आंखों में जो चमक दिखी, उसने मुझ 23 साल के लड़के को चौंका दिया। इतने बड़े पत्रकार, संपादक और पिता की शुभकामनाओं पर, उनके पत्र पर इस तरह खुश हो रहे हैं जैसे पता नहीं क्या मिल गया हो। मुझे लगा इनमें बाल सुलभ सरलता और मासूमियत अभी तक इतने जीवंत रूप में है, इसका सीधा मतलब यही हो सकता है कि इनके पिता कोई सामान्य पिता नहीं हैं। उनके अप्रतिम वात्सल्य ने ही इनके भीतर के पुत्र को इतनी जीवंतता दी है।
दूसरी जो बात मुझे उस पत्र में दिखी, वह यह कि भविष्य को लेकर किसी तरह की चिंता प्रत्यक्ष क्या परोक्ष रूप में भी नहीं थी। जबकि उस दौरान भले अनुराग जी को लोग सीधे तौर पर न कहते हों, बाहर ऐसी काफी चर्चाएं थीं कि अनुराग ने बहुत बड़ा रिस्क लिया है। अंबानीज को छोड़कर महानगर में आना समझदारी भरा फैसला नहीं है वगैरह-वगैरह।
तो नंद बाबू के उस पत्र के जरिए जो बात मेरे मन में दर्ज हुई, वह ये कि नंद बाबू के लिए बड़े ग्रुप की चमक-दमक खास मायने नहीं रखती, उनके वैल्यू सिस्टम में विचार, प्रतिबद्धता और संघर्ष की शायद ज्यादा अहमियत है, तभी तो शिवसेना (उस समय की) जैसी पार्टी से लगातार पंगा लेते रहने वाले ग्रुप में शामिल होने के खतरों का जिक्र तक करने की जरूरत वे नहीं समझते, सिर्फ उत्साह बढ़ाना काफी समझते हैं।
यह नंदबाबू से मेरा पहला परिचय था। इसने जो छाप छोड़ी वह तब और मजबूत हुई जब मुंबई में ही उनसे पहली बार मिला। मौका ठीक याद नहीं है, लेकिन शायद बंबई हिंदी पत्रकार संघ की ओर से आय़ोजित कोई कार्यक्रम था। संयोगवश हमारी मुलाकात बाहर ही हो गई, अनुराग जी ने कहा, ये प्रणव हैं। मुस्कुराहट के साथ उन्होंने मेरी नमस्ते का जवाब दिया और हम अंदर की ओर बढ़े। चार-पांच सीढ़ियां ही थीं, पर मैं बगल में था, वह पूरे अपनेपन और अधिकार से मेरे कंधे पर हाथ रखकर बढ़ने लगे और बोले, 'प्रणव के मजबूत कंधों के सहारे महानगर की सीढ़ियां आसान हो जाती हैं...'
आसापास के हर आदमी के साथ पूरी सहजता और अपनेपन के साथ रिलेट करना और उन्हें सहज महसूस कराना उनका बड़ा गुण था। फिर बता दूं तब तक मैंने उनकी कोई कविता नहीं पढ़ी थी, लेकिन उसी दौरान मैंने राजाराम भादू से उनका संपर्क देखा, दोनों के बीच की आत्मीयता देखी, भादू जी कैसे आदरभाव से उन्हें देखते हैं यह देखा। यह सब मुझे गहरे आंदोलित करता रहा, बताता रहा कि हमें अपने आसपास की दुनिया को कैसे देखना चाहिए, कि मूल्यनिष्ठ, वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध जीवन कैसा होता है।
पर यह भी बता दूं कि बाद में मैंने उनकी कविताएं भी देखीं, उनसे भी प्रभावित हुआ। ऊपर कह चुका हूं कि उनकी कविताओं पर कुछ कहने की हिमाकत नहीं करूंगा, लेकिन यह दर्ज करना जरूरी है कि जैसे उनके गैरकवि रूपों ने मुझे प्रभावित, प्रेरित और परिवर्तित किया, वैसे ही उनकी कविता ने भी किया। बस एक उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करूंगा।
पत्नी और बेटी की मुझसे शिकायत रहती है कि मेरे पास वक्त होता है तब भी मैं उन्हें मॉल घुमाने नहीं ले जाता। यह शिकायत सच भी है। जब तक बहुत जरूरी न हो, मैं मॉल की ओर मुंह नहीं करता। जब जाता हूं तो जो भी जरूरी काम हो वह निपटाते ही वहां से निकलना चाहता हूं।
अक्सर ऐसा होता है कि छुट्टी वाले दिन भी पत्नी और बेटी चाहती हैं तो मैं उन्हें मॉल तक छोड़ देता हूं और खुद आसपास के किसी पार्क में बैठकर समय बिताता हूं। वह मुझे ज्यादा आनंददायक लगता है, लेकिन मेरे आसपास के लोगों को अजीब लगता है कि यह आदमी मॉल में एसी के ठंडे और रौनक भरे माहौल से ऐसा क्यों बिदकता है।
क्या बताऊं मैं उन्हें, मुझे तो नंदबाबू गुपचुप अपनी पंक्तियों के माध्यम से यह बता चुके हैं
‘दुकानों की सजावट से/ मालूम होने लगता है/
कितने प्रकार के दुख देखने हैं/ मुझको और देश को/ ’
तो मॉल में सजी-धजी दुकानों में मैं रौनक कैसे देखूं, वहां आनंद कैसे उठाऊं। मुझे वहां उन दुखों की आहट सुनाई देने लगती है जो मुझे और इस देश को ग्रसने वाले हैं।
नंद बाबू की स्मृतियों को श्रद्धापूर्ण नमन।
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