साइंस///Bern :
वैज्ञानिकों ने लेजर लाइट के सबसे छोटे पल्सेस का उपयोग करके परमाणुओं की गतिविधियों को कैप्चर करने में कामयाबी हासिल की है, जिससे वे इलेक्ट्रॉनों की तस्वीरें ले सकेंगे। लाइट पल्सेस इतनी छोटे होते हैं कि ये केवल कुछ सौ एटोसेकंड तक चलते हैं, जो एक सेकंड के एक अरबवें हिस्से का एक अरबवां हिस्सा होता है।
सारे पदार्थ परमाणुओं से बने होते हैं और सभी परमाणुओं में उप-परमाणु कण होते हैं। लेकिन परमाणुओं के अंदर क्या होता है? यह एक ऐसा रहस्य है, जिसका उत्तर अभी भी स्पष्ट नहीं है। कोई परमाणु चलता विचरण कैसे करता है, अगर यह देखा जा सके तो बहुत मदद मिल जाएगी। लेकिन यहां दो समस्याएं हैं: एक, परमाणु नग्न आंखों से दिखाई नहीं देते हैं, और दूसरा, वे इतनी तेजी से चलते हैं कि लंबे समय तक उनका सटीक अध्ययन करना असंभव है। कोई वस्तु जो इतनी तेजी से गति करे कि उसे नग्न आंखों से देखना मुश्किल हो जाए, उसका फोटो लेना भी संभव है, मसलन हेलीकॉप्टर के ब्लेडों का घूमना, घोड़े के पैर, चिड़ियों का पंख फड़फड़ाना आदि।
कैमरे की शटर स्पीड का सिद्धांत
ऐसी तस्वीरें लेने के पीछे सिद्धांत यह है कि कैमरे की शटर स्पीड- जो प्रकाश के संपर्क की लंबाई निर्धारित करती है- उसका उस वस्तु के एक चक्र से छोटा (या तेज) होना जरूरी होता है जिसकी तस्वीर खींची जा सकती है। हमिंगबर्ड्स अपने पंखों को प्रति सेकंड लगभग 80 बार फड़फड़ाते हैं, इसलिए यूएस का नेशनल वाइल्डलाइफ फेडरेशन कहता है कि ‘उस चिड़िया की तस्वीर लेने के लिए आपको सेकंड का हजारवां या दो हजारवां हिस्से जितनी शटर स्पीड का उपयोग करना होगा’। यानी चिड़िया के पंख फड़फड़ाने की वास्तविक गति से बहुत तेज।
सेकंड के एक अरबवें हिस्से का एक अरबवां हिस्सा !
सवाल है कि परमाणु कितनी तेजी से चलते हैं? जवाब है- उनकी स्पीड इतनी ज्यादा है कि उसे सेकंड के एक अरबवें का करोड़वां हिस्सा बताया जा सकता है। इस यूनिट का एक नाम है: फेमटोसेकंड। विज्ञान ने लेजर से उत्पादित किए जा सकने वाले सबसे छोटे पल्सेस के उपयोग से परमाणुओं की स्पीड कैप्चर करने के कोड को क्रैक करने में कामयाबी हासिल की है। लेकिन याद रहे कि हम सब-एटोमिक पार्टिकल्स की बात कर रहे हैं।
नोबेल फाउंडेशन आगे कहता है कि ‘इलेक्ट्रॉनों की दुनिया में एक से लेकर कुछ सौ एटोसेकंड्स के बीच की गति से पॉजिशन और एनर्जी बदलते हैं...’ फेमटोसेकंड लाइट पल्सेस, इलेक्ट्रॉनों की गति को कैप्चर करने में मददगार नहीं हो पाते हैं, क्योंकि ‘वे इतनी जल्दी मूवमेंट करते हैं कि उनमें आए बदलाव एक फेमटोसेकंड में धुंधले पड़ जाते हैं’। यह उस तरह है मानो किसी चिड़िया के पंख फड़फड़ाने को बहुत कम शटर स्पीड वाले कैमरे से कैप्चर किया जाए।
एक अरबवें हिस्से का एक अरबवां हिस्सा
जब जमैका के उसैन बोल्ट ने 2009 में 100 मीटर की दौड़ में पुरुषों का विश्व रिकॉर्ड बनाया, तो उनके और दूसरे स्थान पर रहने वाले अमेरिका के टायसन गे के बीच का अंतर 0।13 सेकंड था। इस मामले में, सेकंड को 100 भागों में विभाजित किया गया था। लेकिन एटोसेकंड के लिए सबसे पहले हमें एक सेकंड को एक अरब भागों में विभाजित करना होगा। फिर, हमें उन अरब भागों में से एक लेना है और फिर उसे एक अरब भागों में विभाजित करना है। आपके पास एक अरबवें हिस्से का एक अरबवां हिस्सा आ गया। इस साल के भौतिकी नोबेल पुरस्कार जीतने वाली तिकड़ी ने इसी छोटे समय के पैमाने पर लेजर लाइट की इतनी छोटी पल्सेस को पैदा करने के लिए काम किया है, जो वैज्ञानिकों को इलेक्ट्रॉनों की तस्वीरें लेने में मदद करते हैं। उन्होंने इसे ‘एटोसेकंड स्पेक्ट्रोस्कॉपी’ नामक किसी चीज के जरिए संभव बनाया है।
दो धारणाएं प्रचलित हैं साइंस में
यहां दो अवधारणाएं प्रासंगिक हैं: प्रकाश और प्रकाश की पल्सेस। प्रकाश, निश्चित रूप से, तरंगों से बना होता है। पल्स ‘प्रकाश तरंग में एक ही अवधि की लंबाई है, वह चक्र जहां यह एक शिखर तक ऊपर की ओर झूलता है, फिर नीचे एक गर्त तक और वापस अपने प्रारंभिक बिंदु पर वापस जाता है’। 1980 के दशक में सब-एटोमिक पार्टिकल्स को देखने के प्रयास इसलिए परिणाम नहीं दे पाए क्योंकि सामान्य लेजर सिस्टम एक फेमटोसेकंड से छोटी पल्सेस को पैदा नहीं कर सकते थे। लेकिन वैज्ञानिक जानते थे कि प्रकाश के किसी भी वेव फॉर्म को विशेष आकारों की कई तरंगदैर्ध्य (वेवलेंग्थ्स) को मिलाकर बनाया जा सकता है। इसलिए, सबसे छोटी संभव वेवलेंग्थ या एटोसेकंड पल्स प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों को कई छोटी वेवलेंग्थ को मिलाना था।
ओवरटोन का भी अहम रोल
इस ट्रिक में लेजर लाइट को गैस से होकर गुजारना भी शामिल है। इससे पैदा होने वाले ओवरटोन कहलाते हैं। ओवरटोन वो तरंगें होती हैं जो मूल तरंग या प्रारंभिक लेजर बीम द्वारा पूरा किए गए प्रत्येक चक्र के लिए कई चक्र पूरा करती हैं। 1987 में ऐनी लुइलियर और फ्रांस में उनके सहयोगियों ने एक इन्फ्रारेड लेजर बीम को एक नोबल गैस से गुजारकर ओवरटोन का उत्पादन किया। दृश्य प्रकाश के मुकाबले इन्फ्रारेड लाइट में लंबी वेवलेंग्थ होती है, जिसका अर्थ है कि वे नग्न आंखों को दिखाई नहीं देती हैं। लुइलियर के प्रयोग में इन्फ्रारेड लाइट का उपयोग करने का लाभ यह हुआ कि इसने समान प्रकाश तीव्रता के कई ओवरटोन बनाए। इस प्रकार, उम्मीद पर खरा उतरने वाले वेवलेंग्थ बनाने की एक शर्त पूरी हो गई।
परमाणुओं की नब्ज तक पहुंच गया विज्ञान
लुइलियर के प्रयोगों ने सैद्धांतिक आधार-प्रदान किया, जिस पर अन्य वैज्ञानिक, प्रकाश की सबसे छोटी संभव पल्सेस की खोज में प्रयोग कर सकते थे। 1990 के दशक तक पता चला कि जब लेजर लाइट, गैस से होकर गुजरता है तो यह उसके परमाणुओं को प्रभावित करता है और इसे इस प्रकार से हिलाता है कि गैस के परमाणुओं में निहित इलेक्ट्रॉन बच जाते हैं। लेकिन परमाणु के चारों ओर विद्युत क्षेत्र की प्रकृति भी इनमें से एक ढीले इलेक्ट्रॉन को श्अपने परमाणु के नाभिक में वापस भागनेश् का कारण बन सकती है। हालांकि, यह इलेक्ट्रॉन को ऊर्जा से भर देता है, जिसे वह अंत में प्रकाश के एक पल्स के रूप में खो देता है। जैसे-जैसे लेजर लाइट विभिन्न परमाणुओं के साथ संपर्क करता है, यह विशिष्ट वेवलेंग्थ के एक सेट के साथ विभिन्न प्रकाश तरंगें बनाता है। ये प्रकाश के विभिन्न वेवलेंग्थ्स सभी मूल इन्फ्रारेड बीम के ओवरटोन हैं।
प्रत्येक पल्स कुछ सौ एटोसेकंड लंबा
फिर ये ओवरटोन एक-दूसरे के साथ बातचीत करना शुरू करते हैं और सही परिस्थितियों में पराबैंगनी प्रकाश की पल्सेस की एक श्रृंखला बना सकते हैं, जिन्हें नग्न आंखों नहीं देखा जा सकता है और जहां प्रत्येक पल्स कुछ सौ एटोसेकंड लंबा होता है। अब बस जरूरत थी इन पल्सेस को अलग करने और मापने की। पियरे एगोस्टिनी और उनके सहयोगियों ने भी फ्रांस में ‘पल्स ट्रेन’ नामक कुछ विकसित करके लगातार प्रकाश दालों की एक श्रृंखला पैदा करके उसका अध्ययन करने में कामयाबी हासिल की। उन्होंने पाया कि प्रत्येक पल्स केवल 250 एटोसेकंड तक चला। ऑस्ट्रिया में, फेरेंक क्रॉस्ज और उनके रिसर्च ग्रुप ने 650 एटोसेकंड तक चलने वाली एक पल्स को अलग करने में सफलता प्राप्त की। तब तक नई सहस्राब्दी आ चुकी थी और यह वैज्ञानिक दुनिया के लिए स्पष्ट था कि ‘एटोसेकंड पल्सेस को देखा और मापा जा सकता है और उनका उपयोग नए प्रयोगों में भी किया जा सकता है’।
दूर तलक जाएगी रिचर्स की गूंज
हालांकि, इस सफलता के असंख्य उपयोग हैं, लेकिन अभी ये सब-एटोमिक लेवल तक सीमित हैं। इसका हमारे दैनिक जीवन में उपयोग नहीं हो सकता है, लेकिन जैसा कि नोबेल फाउंडेशन कहता है, ‘इन पल्सेस का उपयोग परमाणुओं और अणुओं के विस्तृत भौतिकी का पता लगाने के लिए किया गया है और इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर चिकित्सा तक के क्षेत्रों में काम आ सकते हैं’।
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